मैथिलीकेँ नइँ बान्हियौ - मनोरञ्जन झा की प्रसिद्ध कविता और भावार्थ | Maithili Ke Nai Banhiyau by Manoranjan Jha
मैथिलीकेँ नइँ बान्हियौ - मनोरञ्जन झा की प्रसिद्ध कविता और भावार्थ | Maithili Ke Nai Banhiyau by Manoranjan Jha
मैथिलीकेँ नइँ बान्हियौ: भाषा की मुक्ति का उद्घोष
Maithili Ke Nai Banhiyau by Manoranjan Jha: मैथिली साहित्य के विशाल आकाश में कई कवियों ने अपनी लेखनी से सामाजिक चेतना की मशाल जलाई है। इन्हीं में से एक प्रखर नाम है श्री मनोरञ्जन झा, जिनकी कविता "मैथिलीकेँ नइँ बान्हियौ" भाषा को जाति और वर्ग की बेड़ियों से मुक्त करने का एक शक्तिशाली आह्वान है। यह कविता सिर्फ शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि मिथिला के हर आम और खास तक मैथिली को पहुँचाने का एक प्रगतिशील घोषणापत्र है।
आज साहित्यशाला पर हम इस कालजयी मैथिली कविता और इसके गहरे अर्थों (Maithili poem meaning in Hindi) को समझने का प्रयास करेंगे। यह कविता बताती है कि किसी भी भाषा का असली विकास तब होता है जब वह कुछ विशेष लोगों के दलान और खलिहान से निकलकर हर घर, हर आँगन तक पहुँचती है।
मैथिलीकेँ नइँ बान्हियौ – मनोरञ्जन झा
मैथिलीकेँ नइँ बान्हियौ,
आशा, उषा आ निशाक दुपट्टामे
एकरा जाए दिऔ घसछिलनीक छिट्टामे
आ भिखमंगनीक बट्टामे
नइँ ! जँ एना कंठ मोकिक’ राखबै
मैथिलीकेँ झा जीकेर पानपर
मिसर जीक दलानपर
पाठक जीक मचानपर
आ चौधरी जीक खरिहानपर
तँ छिछियाक’ मैथिली
पड़ेतीह लहठा बथानपर
बगलेमे बहैत छथिन कोसी
कूदिक’ आत्महत्या क’ लेतीह !
तेँ ….
मैथिलीकेँ जाए दिऔ
लोहारक भट्ठी आ पासवान जीक मचानपर
कामत जीक ओसरा आ महतो जीक मचानपर
मौलवी साहेबक टोपी आ यादव जीक बथानपर
सीतामढ़ीक आंगन आ पूर्णियाक दलानपर
भाषाक पानि जखन जड़िमे ढरेतै !
तखने मैथिलीक झण्डा अकासमे फहरेतै !
कविता का भावार्थ और विश्लेषण (Meaning of the Poem)
मनोरंजन झा इस कविता के माध्यम से मैथिली भाषा के तथाकथित संरक्षकों पर गहरा व्यंग्य करते हैं। वह कहते हैं कि भाषा को केवल कुछ कुलीन जातियों या वर्गों तक सीमित नहीं रखा जाना चाहिए।
भाग 1: भाषा का लोकतंत्रीकरण
कवि कहते हैं कि मैथिली को केवल आशा, उषा, और निशा जैसी सुंदर कल्पनाओं के दुपट्टे में मत बांधो। इसे समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़ी 'घसछिलनी' (घास काटने वाली) और 'भिखमंगनी' (भिखारिन) तक पहुँचने दो। भाषा की सार्थकता तभी है जब वह हर किसी की जुबान पर हो, चाहे वह किसी भी सामाजिक या आर्थिक स्थिति का हो।
भाग 2: कुलीन वर्ग पर कटाक्ष
यहाँ कवि उन तथाकथित 'ब्राह्मणवादी' या 'कुलीन' वर्गों पर सीधा प्रहार करते हैं जो भाषा को अपनी जागीर समझते हैं। झा, मिसर (मिश्र), पाठक और चौधरी जैसे उपनामों का उपयोग करके वे उस मानसिकता को दर्शाते हैं जो मानती है कि शुद्ध मैथिली केवल उनके पान, दलान, मचान और खलिहान तक ही सीमित है। कवि चेतावनी देते हैं कि इस तरह भाषा का गला घोंटने से वह छटपटाकर दम तोड़ देगी। कोसी नदी में कूदकर आत्महत्या करने का बिम्ब अत्यंत मार्मिक है, जो भाषा की मृत्यु की पीड़ा को दर्शाता है।
भाग 3: समावेशिता का आह्वान
अंतिम भाग में कवि समाधान प्रस्तुत करते हैं। वह कहते हैं कि मैथिली को समाज के हर वर्ग तक जाने दो - लोहार की भट्ठी से लेकर पासवान, कामत, महतो और यादवों के घरों तक। इसे मौलवी साहब की टोपी में भी जगह दो, जो धार्मिक सौहार्द का प्रतीक है। भाषा को भौगोलिक सीमाओं से मुक्त कर सीतामढ़ी से लेकर पूर्णिया तक फैलने दो।
कवि का अंतिम वाक्य, "भाषाक पानि जखन जड़िमे ढरेतै ! तखने मैथिलीक झण्डा अकासमे फहरेतै !", इस पूरी कविता का सार है। जैसे पानी पौधे की जड़ में जाने पर ही वह हरा-भरा होता है, वैसे ही भाषा जब आम लोगों (जड़) तक पहुँचेगी, तभी उसका झंडा आकाश में शान से फहराएगा।
निष्कर्ष
मनोरंजन झा की यह कविता आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। यह हमें याद दिलाती है कि भाषा किसी वर्ग विशेष की संपत्ति नहीं, बल्कि पूरे समाज की धरोहर है। Maithili Ke Nai Banhiyau सिर्फ एक कविता नहीं, बल्कि एक विचार है - समावेशिता, समानता और भाषाई गौरव का विचार। यह famous Maithili poem हर भाषा प्रेमी के लिए एक प्रेरणा है।
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