Maithili poetry is a rich and vibrant form of artistic expression, celebrated for its beauty, emotion, and timeless themes. From ancient epics to modern works, these poems offer a window into Maithili culture, capturing the joys and sorrows of life with exquisite imagery and profound insight.
From the ancient epics of Vidyapati to the contemporary works of modern poets, Maithili poems capture the joys and sorrows of life with exquisite imagery and timeless themes. Explore this vibrant culture.
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नागार्जुन की मैथिली कविता 'विलाप' (अर्थ सहित) | Vilap by Nagarjun
नागार्जुन की प्रसिद्ध मैथिली कविता: विलाप
विलाप - Vilap
बाबा नागार्जुन: मैथिली के 'यात्री'
बाबा नागार्जुन (मूल नाम: वैद्यनाथ मिश्र) को हिंदी साहित्य में उनके प्रगतिशील और जनवादी लेखन के लिए जाना जाता है। 'सिंदूर तिलकित भाल' जैसी उनकी हिंदी कविताएँ जितनी प्रसिद्ध हैं, उतना ही गहरा उनका मैथिली साहित्य में 'यात्री' उपनाम से दिया गया योगदान है। मैथिली उनकी मातृभाषा थी और उनकी मैथिली कविताओं में ग्रामीण जीवन, सामाजिक कुरीतियों और मानवीय संवेदनाओं का अद्भुत चित्रण मिलता है।
'विलाप' कविता का परिचय
नागार्जुन की 'विलाप' (Vilap) मैथिली साहित्य की एक अत्यंत मार्मिक और प्रसिद्ध कविता है। यह कविता, उनकी अन्य मैथिली कविताओं की तरह ही, सामाजिक यथार्थ पर गहरी चोट करती है। 'विलाप' का मुख्य विषय समाज की सबसे दर्दनाक कुरीतियों में से एक—बाल विवाह (Child Marriage)—और उसके फलस्वरूप मिलने वाले वैधव्य (Widowhood) की पीड़ा है। यह कविता एक ऐसी ही बाल विधवा की मनोदशा का सजीव चित्रण करती है।
नान्हिटा छलौँ, दूध पिबैत रही
राजा-रानीक कथा सुनैत रही
घर-आँगनमे ओंघड़ाई छलौँ,
कनिया-पुतरा खेलाइ छलौँ,
मन ने पड़ै अछि, केना रही
लोक कहै अछि, नेना रही
माइक कोरामे दूध पिबैत
बैसलि छलौँ उँघाइत झुकैत
परतारि क' मड़वा पर बहीन ल' गेल
की दन कहाँ दन भेलै, बिआह भ' गेल
पैरमे होमक काठी गड़ल
सीथमे जहिना सिन्नूर पड़ल
वर मुदा अनचिन्हार छला
फूसि न कहब, गोर नार छला
अवस्था रहिन्ह बारहक करीब
पढब गुनब तहूमे बड़ दीब
अंगनहिमे बजलै केदन ई कथा
सुमिरि सुमिरि आई होइये व्यथा
सत्ते कहै छी, हम ने जनलिअइ
हँसलिअइक ने, ने कने कनलिअइ
बाबू जखन मानि लेलथीन
सोझे वर्षे दुरागमनक दिन
सिखौला पर हम कानब सीखल
कपारमे मुदा छल कनबे लीखल
सिन्नूर लहठी छल सोहागक चीन्ह
हम बुझिअइ ने किछु उएह बुझथीन्ह
रहै लगलौं भाइ-बहीन जकाँ
खेलाय लगलौं राति-दिन जकाँ
कोनो वस्तुक नहीं छल बिथूति
कलेसक ने नाम दुखक ने छूति
होम' लागल यौवन उदित
होम' लागल प्रेम अंकुरित
बारहम उतरल, तेरहम चढ़ल
ज्ञान भेल रसक, सिनेह बढ़ल
ओहो भ' गेला बेस समर्थ
बूझै लगला संकेतक अर्थ
सुखक दिन लगिचैल अबैत रहै
मन आशाक मलार गबैत रहै
बन्हैत रही बेस मनोरथक पुल
विधाता बूझि पड़ै छल अनुकूल
दनादन दिन बितैत रहै
अभागलि हैब, से क्यौ ने कहै
एक दिन उठलिन्ह हुनका दर्द
टोल भरिमे भ' गेल आसमर्द
कतै वैद डाकदर बजाओल गेला
तैयो ने हाय ओ नीकें भेला
बहार कै देलकन्हि लोग आबि क'
जान लै लेलकन्हि रोग आबि क'
बैतरणीमे उसरगल गेलन्हि बाछि
उठा क' ल' जाइत गेलथिन्ह गाछी
पोखरिपर लहठी फूटल हमर
सीथसँ सिन्नूर छूटल हमर
ठोहि पाड़िक हकन्न कनैत रही
एना हैत से की जनैत रही
लगै अछि चारू दिस अन्हार जकाँ
ने बुझि पड़ै क्यौ चिन्हार जकाँ
विष सन अवस्था, पहाड़ सन जीवन
संसारमे हमर के अछि अपन ?
कानी तँ चुप कैनिहार क्यौ नहि
रूसी तँ बौंसनिहार क्यौ नहि
हम पड़लि छी टूटल पुल जकाँ
मौलैल, बिनु सूँघल फूल जकाँ
आगि छुबै छी तँ जरैत ने छी
माहुर खाई छी तँ मारैत ने छी
कोढ़ फाटै मुदा ने जाय जान
कोन पाप कैने छलौं हे भगवान
भरल आँगन सुन्न हमरा लेखै
फूजल घर निमुन्न हमरा लेखें
लोक अलच्छि बुझैए, अशुभ बुझैए
अनेक नहि, से अपनो सुझैए
बिनु बजौने कतौ जाइ ने आबी
मुँहमे लगौने रहै छी जाबी
भुस्साक आगि जकाँ नहू नहू
जरै छी मने-मने हमहू
फटै छी कुसियारक पोर जकाँ
चैतक पछवामे ठोर जकाँ
काते रहै छी जनु घैल छुतहड़
आहि रे हम अभागली कत बड़
भिन्सरे उठि प्रात:स्नान क' क'
जप करै छी हुनके ध्यान ध' क'
धर्मसँ जीवन बिताबै चाहै छी
इज्जति आबरू बचाबै चाहै छी
तैओ करै चाहै छथि हमरा नचार
केहेन केहेन ठोप चानन कैनिहार !
ओहनाक सङ्गे जँ हम खाधिमे खसी
ओ नुकैले रहता, हमर हैत हँसी
स्त्रीगणक जाती हम थिकौं अबला
तहू पर विधवा, कहू त भला !
पुरुषक जाती ओकरा के की कहतै
ओकरे समाज ओकरे बात रहतै
उठा लितथि बरु भगवान हमरो
कथी लै भारी लगितिअइ ककरो
मरब तँ कानत क्यौ नहिएँ
रहब तँ क्यौ जानत नहिएँ
इहो जीवन कोनो जीवन थीक
एहिसँ कुकुर-बिलाड़िए नीक
माय-बापक मनोरथक शिकार भ' क'
बेकार भ' क, दबल हाहाकार भ' क'
पँजियाड़ औ' घटकराजक नामपर
व्यवस्था औ' समाजक नामपर
विधवा हमरे सन हजारक हज़ार
बहौने जा रहलि अछि नोरक धार
ओहिमे ई मुलुक डूबि बरु जाय
ओहिमे लोक-वेद भसिया बरु जाय
अगड़ाही लगौ बरु बज्र खसौ
एहेन जाति पर बरु धसना धसौ
भूकम्प हौक बरु फटो धरती
माँ मिथिले रहिये क' की करती !
-
नागार्जुन
'विलाप' कविता का सरल भावार्थ (Analysis of Vilap Poem)
'विलाप' कविता एक बाल विधवा की आत्मकथा है, जो अपनी दुखद कहानी खुद बयाँ कर रही है।
बचपन और विवाह: वह कहती है कि जब वह बहुत छोटी थी, दूध पीती बच्ची थी, तभी उसका विवाह कर दिया गया। उसे ठीक से याद भी नहीं कि कब उसकी मांग में सिंदूर पड़ गया। उसका पति भी एक किशोर ही था (बारह-तेरह वर्ष का), लेकिन दुर्भाग्य से, इससे पहले कि वे वैवाहिक जीवन का अर्थ भी समझ पाते, उसके पति की बीमारी से मृत्यु हो गई।
वैधव्य का अभिशाप:कविता का मुख्य दर्द यहीं से शुरू होता है। वह बताती है कि कैसे उसका सुहाग (लहठी-सिंदूर) मिटा दिया गया। वह समाज में "अलच्छि" (अशुभ) मानी जाने लगी। वह कहती है कि उसका जीवन एक टूटे हुए पुल या बिना सूंघे, मुरझाए हुए फूल जैसा हो गया है। वह नर्क जैसी जिंदगी जी रही है, लेकिन मौत भी उसे नहीं आती ("आगि छुबै छी तँ जरैत ने छी, माहुर खाई छी तँ मारैत ने छी")।
सामाजिक पाखंड पर चोट:अपनी अन्य कविताओं की भांति, यहाँ भी नागार्जुन सामाजिक पाखंड पर गहरी चोट करते हैं। विधवा बताती है कि कैसे समाज के ठेकेदार ही उसकी इज़्ज़त लूटना चाहते हैं। वह कहती है कि अगर वह कोई गलत कदम उठाती है, तो समाज उसी (स्त्री) को दोषी ठहराएगा, पुरुष का कुछ नहीं बिगड़ेगा। यह नागार्जुन की प्रसिद्ध व्यंग्यात्मक शैली का एक गंभीर रूप है।
कविता का अंत: अंत में, उसका विलाप एक विद्रोह में बदल जाता है। वह कहती है कि "हमरे सन हजारक हज़ार" (मेरे जैसी हज़ारों) विधवाएं आंसुओं की धार बहा रही हैं। वह श्राप देती है कि इस आँसू की धार में यह पूरा समाज, यह लोक-वेद (नियम) डूब जाए और नष्ट हो जाए।
क्या आप ' मैथिल कवि कोकिल ' विद्यापति की प्रसिद्ध मैथिली कविताएँ खोज रहे हैं? इस लेख में, हम उनकी सबसे प्रशंसित रचनाओं में से एक, एक ' शिव नचारी ' (Shiv Nachari), को उसके मूल गीतों (lyrics) के साथ प्रस्तुत कर रहे हैं। इस मैथिली कविता के पीछे के गहरे भाव को आसानी से समझने के लिए, हम इसका सरल हिन्दी भावार्थ (Hindi Meaning) भी प्रदान कर रहे हैं। शिव नचारी एत जप-तप हम की लागि कयलहु, कथि लय कयल नित दान। हमर धिया के इहो वर होयताह, आब नहिं रहत परान। नहिं छनि हर कें माय-बाप, नहिं छनि सोदर भाय। मोर धिया जओं ससुर जयती, बइसती ककरा लग जाय। घास काटि लऔती बसहा च्रौरती, कुटती भांग–धथूर। एको पल गौरी बैसहु न पौती, रहती ठाढि हजूर। भनहि विद्यापति सुनु हे मनाइनि, दिढ़ करू अपन गेआन। तीन लोक केर एहो छथि ठाकुर गौरा देवी जान। Vidyapati Poems in Maithili & Hindi कवि परिचय: विद्यापति कवि विद्यापति (जन्म लगभग 1352-1448) एक महान मैथिली कवि और संस्कृत विद्वान थे, जिन्हें आदरपूर्वक 'मैथिल कवि कोकिल' (मिथिला का कोयल) कहा जाता है। वे विशेष रूप से राधा-कृष्ण के प्रेम वर्णन और भगवान शिव ...
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