मातृभाषा का सम्मान: अमरनाथ झा की कविता 'अपन मायके भाषा' | Matrabhasha Maithili Ka Sammaan
मातृभाषा का महत्व: 'अपन मायके भाषा' कविता का भाव
Poem on International Mother Language Day: हर साल 21 फरवरी को विश्व मातृभाषा दिवस मनाया जाता है। यह दिन हमें हमारी जड़ों से, हमारी पहचान की सबसे पहली ध्वनि से जोड़ता है - हमारी माँ की भाषा। इसी भावना को केंद्र में रखकर कवि श्री अमरनाथ झा ने अपनी कलम से एक अद्भुत रचना को जन्म दिया ہے, जो हर मैथिल के हृदय को छू लेती है।
यह कविता केवल शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि अपनी भाषा के प्रति सम्मान, प्रेम और कर्तव्य का एक शक्तिशाली अनुस्मारक है। यह हमें बताती है कि दुनिया की कोई भी भाषा सीख लेना सफलता हो सकती है, लेकिन अपनी मातृभाषा में जीना और सोचना ही वास्तविक आत्म-गौरव है।
मातृभाषा दिवस पर कविता – अमरनाथ झा
लगै सोहाउन रसनचौकी
दूरहिं स’, ढोल आ ताशा
स’भ तरफ सँ मिठगर लागै
अपन अपन मायके भाषा ।
भने लिखा जाउ दोसरो भाषा
होइछ कल्पना माइएक भाषा
पढ़ि लेल जाय अनेक शास्त्र पर
अर्थ बुझादै माइएक भाषा ।
अपन मातृभाषा के सदिखन
बाँचल रहै आदर सम्मान
गर्वोन्नत सिर रहतै सभदिन
रखने निज भाषाके मान ।
मायक भाषा,अप्पन भाषा
हार रत्न सम गैंथिली
बाहर हिंदी-अंगरेजी,वा जे
घरमे बजियौ मैथिली ।
मातु मैथिली भाषा प्रचलन
घर-बाहर मे हो व्यवहार
अपन घ’र मे इज्जति पओती
तखने इज्जति भरि संसार ।
आइ विश्वमातृभाषा-दिवस
पर,सभकेँ अछि शुभकाम
अपन-अपन मातृभाषाके मनमे
रखने रही सदति सम्मान ।
कविता का भावार्थ और गहरा विश्लेषण
अमरनाथ झा की यह कविता अपनी सादगी में बहुत गहरे अर्थ छिपाए हुए है। यह मातृभाषा के महत्व को चरण-दर-चरण समझाती है।
कल्पना और समझ की भाषा कवि कहते हैं कि आप भले ही दूसरी भाषाओं में लिखें या पढ़ें, लेकिन आपकी कल्पना की उड़ान ("होइछ कल्पना") हमेशा आपकी मातृभाषा में ही होती है। आप कितने भी शास्त्र पढ़ लें, उनका सच्चा और सहज अर्थ ("अर्थ बुझादै") आपको अपनी माँ की भाषा ही समझाती है। यह एक गहरा मनोवैज्ञानिक सत्य है कि हम सीखते किसी भी भाषा में हैं, पर समझते अपनी भाषा में हैं।
सम्मान और स्वाभिमान का प्रतीक कविता की सबसे शक्तिशाली पंक्तियों में से एक है - "गर्वोन्नत सिर रहतै सभदिन, रखने निज भाषाके मान।" यहाँ कवि ने भाषा के मान को सीधे व्यक्ति के स्वाभिमान से जोड़ा है। जो समाज अपनी भाषा का सम्मान करता है, उसका सिर दुनिया में हमेशा गर्व से ऊँचा रहता है।
घर और दुनिया का संतुलन कवि एक बहुत ही व्यावहारिक समाधान देते हैं। वह जानते हैं कि आज की दुनिया में हिंदी और अंग्रेजी जैसी भाषाओं की जरूरत है। इसलिए वह कहते हैं - "बाहर हिंदी-अंगरेजी,वा जे, घरमे बजियौ मैथिली।" यह घर को अपनी संस्कृति की जड़ें सींचने का केंद्र बनाने का आह्वान है। यदि घर में भाषा जीवित रहेगी, तो वह बाहर कभी नहीं मरेगी।
सम्मान घर से शुरू होता है कविता का सार अंतिम पंक्तियों में है - "अपन घ’र मे इज्जति पओती, तखने इज्जति भरि संसार।" यह एक सार्वभौमिक सत्य है। यदि हम खुद अपनी भाषा को बोलने में संकोच करेंगे, उसे सम्मान नहीं देंगे, तो हम दुनिया से उसके सम्मान की उम्मीद कैसे कर सकते हैं? मैथिली का सम्मान विश्व पटल पर तभी होगा, जब हर मैथिल उसे अपने घर में सम्मान देगा।
निष्कर्ष
यह कविता विश्व मातृभाषा दिवस पर सिर्फ एक शुभकामना नहीं, बल्कि एक शपथ लेने का निमंत्रण है। यह हमें अपनी मैथिली भाषा को एक रत्नजड़ित हार की तरह सहेजने और उसे गर्व से धारण करने के लिए प्रेरित करती है।
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