बूढ़ा वर / यात्री
"यात्री" मैथिलि कविता
वैद्यनाथ मिश्रा "यात्री" मैथिलि कविता
घर रहिन्ह वरक कमला कात
करै छला खेती साँझ-परात
मरि गेलथीन्ह जखन तेसरो बहु
सौख भेलन्हि बिआहक फेर की कहु
रुपैया बान्हि बूढ़ ऐला सौराठ
माथ छलन्हि औन्हल छाँछ जकाँ
जीह गाँझक गोलही माछ जकाँ
दाँत ने रहन्हि, निदंत रहथि
बूड़ि रहथि, घोघा बसंत रहथि
खा रहल छला पान तइपर
कन्यागत दई छलथीन्ह जान तइपर
देखिकै बूढ़ वरक चटक-मटक
घुमैत-घुमैत पहुँचला घटक
पान गलोठिकें उठौलन्हि बात
पूछै लगलथीन्ह परिचय पात
हाथमे हुनक नोसिदानी रहन्हि
छाता रहन्हि, टूटल कमानी रहन्हि
उसरगल छलन्हि कि दनही छलन्हि
कुकुरक चिबौल पनही छलन्हि
साठा पाग रहन्हि चूनक छाँछी जकाँ
कनपट्टीक मसुबिर्ध माछी जकाँ
निमूह धनक जड़ि कटैत रहथि
पाँजि पाटिमे चेफड़ी सटैत रहथि
विधि-व्यवहार सै सँ ऊपर लागत
बेसी नही, गोड़ पचासेक देब हमरो
विधाताक संग आशीर्वाद लेब हमरो
सै मे एक अछि 'कान्या', भोग होऔ
सोनमे सुगंधिक संयोग होऔ ।"
हम अजग्गि, बाप उताहुल रहथि
व्यौला रहथि, बेचै लै आकुल रहथि
शेष शुद्ध दिन नौ सौ मे पटलन्हि जा क
हमर गर्दनि बाबू कटलन्हि जा क
घटक पँजियाड़ दूनू बजला मिथ्या
सिद्धान्त भेलन्हि तखन उठला विख्या
सड़लि घोड़ीक एकटा एक्का कैलन्हि
सोझै फल्लाँ गामक सड़क धैलन्हि
मुन्हारि साँझकैं पहुँचैत गेला गाम
पकैत रहइ गाछीमे भरखरि आम
पसरल सबतरि बूढ़ बरक बात
आहि रे कनिया, आहि रे अहिबात
ठाढ़ होथि त लागथि धनुष जकाँ
कथी लै बूझि पड़ता मनुष जकाँ
दाढ़ी बनाओल, कपचल मोछ रहन्हि
नाक जेना टिटहिक चोंच रहन्हि
चिक्कन माथ लगन्हि काछुक पीठ जकाँ
बूझि पड़थीन्ह असर्ध जकाँ, ढीठ जकाँ
देखिकेँ माईकें लगलइ केहेन दन
नाक पर पसेंना, कपार पर घाम
ठकुआ गेली बेचारी ठामक ठाम
दौड़लि गेलि, बाबू कें लगलि कह'
विषादें नोर भ' क लागलि बह'-
"ई की कैल उठाक ल आनल
कमलक कोढ़ी लै ढेंग कोकनल
बेटिकें बेचलउँ मड़ुआक दोबर
बूढ़ बकलेलसँ भरलऊँ कोबर
जनमितहिँ मारि दितिअई नोन चटा क'
कुहरए न पड़ितै घेंट कटा क' ।"
पीअर झोरी दिस आँगुर उठा क'
बाबू कहलथीन्ह रुपैया देखाक-
"दूर जाउ, शुभक बेर कनै छी की
दिन घुरलई छौंड़ीक, जनई छी की
बनति सै बीघा खेतक मलिकाइनि
हमरा बेटी सन के हएत धनिकाइनि
बहुत भेल, रहए दिअ, जुनि किछु कहू
जाउ, 'अथ-उत मे' पड़लि ने रहू
जाउ, कन्यादानक ओरिऔन करू ग
पड़िछन करू ग, चुमौन करू ग
दुसई लै, लजबंई लै, डरबई लै
बजै अछि लोक तँ की करबई लै ।"
अहुरिया कटलक, मललक हाथ
बाबू आगाँ माई झुकौलक माथ
हुनक अनटोटल बात एक दिस
करब की, सब पी गेलऊँ घोंटि क'
चम्पाक कली फेकल गेलऊँ खोंटि क'
बिआह-चतुर्थी सब भलई सम्पन्न
ओ ससुर धन्न ई जमाय धन्न
हम लोहछलि, ओ रहथि आतुर
(खिसियैल बिलाड़ि नोंचे धुरखुर)
कोहबरसँ माइ लग देह नड़ा के'
बूढा नाचै लगला हर्षे
दुरागमन भ' गेलन्हि सोझे वर्षे
मनुष रहिअन्हि अपन, ल' अनलन्हि
ताला-कुंजी सबकथु द' देलन्हि
देखिक' हमरा परभच्छय उठइए
कहिओ जँ नहिराक लोक अबइए
गराँमे पड़ल सोनक सूति
चलै लागल घरमे सब पर जुइत
बूझि पड़ि निचिंत, अछि खगते कथिक
साँई करैत छथि डरै सिक सिक
मुदा हृदय अछि हाहाकार करैत
कोढ़ अछि ध ध ध ध जरैत
छुच्छ कोर, आँखिमे अछि नोर भरल
ने देखल ककरो एहेन कर्म जरल
मनमे उठैत रहइए स्वाइत-
" जो रे राक्षस, जो रे पुरुषक जाति !
तोरे मारलि हम सभ मरि रहलि छी
किकिया रहलि छी, कुहरि रहलि छी
मोल लई छैं हमरा तों टका द' क'
कनबइ छैं बाप भ' क', काका भ' क'
जाइ अछि पानी जकाँ दिन हमर
जीवन भेल केहेन कठिन हमर
ककरा की कहबइ, सुनत के आई
फाट' हे धरती, समा हम जाइ !"
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