मैथिली साहित्य में कर्ण: 'कर्ण कयावह' की लुप्त गाथा और महादानी का चरित्र चित्रण (Karna in Maithili Literature)
मैथिली साहित्य में कर्ण: 'कर्ण कयावह' की लुप्त गाथा और महादानी का चरित्र चित्रण (Karna in Maithili Literature)
भारतीय साहित्य के इतिहास में यदि कोई ऐसा चरित्र है जिसने देवताओं को भी लज्जित कर दिया, तो वह हैं अंगराज कर्ण। हिंदी साहित्य में रामधारी सिंह दिनकर ने 'रश्मिरथी' के माध्यम से कर्ण को जो ओज प्रदान किया, उससे हम सभी परिचित हैं। किन्तु, क्या आप जानते हैं कि मैथिली साहित्य में कर्ण (Karna in Maithili Literature) का स्थान एक 'हारने वाले योद्धा' का नहीं, बल्कि एक लोक-देवता का है?
मिथिला के लोक-जीवन में कर्ण से जुड़ी अनेक गाथाएँ प्रचलित हैं। इस लेख में हम 'कर्ण कयावह' (Karn Kayavah) शब्द का प्रयोग मिथिला क्षेत्र में प्रचलित कर्ण-केंद्रित उन लोक-गाथाओं और गीतों के लिए सामूहिक रूप से कर रहे हैं, जिनमें कर्ण की करुणा और त्याग की प्रतिमूर्ति दिखाई देती है। आज हम साहित्यशाला के इस लेख में इसी लुप्त होती विधा और उसके साहित्यिक महत्व का विश्लेषण करेंगे।
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| मैथिली लोक-गाथाओं में कर्ण को एक योद्धा से अधिक एक त्यागी और महादानी के रूप में पूजा जाता है, जो अपना सर्वस्व लुटाकर भी अडिग है। |
।। कर्ण कयावह: महायोद्धा की अमर गाथा (The Lost Folk Epic) ।।
मिथिला के लोक-मानस में कर्ण की कथा केवल एक गीत नहीं, बल्कि आँसुओं से लिखी वह लोक-गाथा (Folk Ballad) है जो सदियों से ग्रामीण अंचलों में जीवित है। यह कहानी है उस महायोद्धा की, जिसका जन्म सूर्य के तेज से हुआ, पालन-पोषण एक सारथी के घर हुआ, और जिसका अंत कुरुक्षेत्र की उस रक्तरंजित भूमि पर हुआ जहाँ उसने अपने ही भाइयों के विरुद्ध शस्त्र उठाया। यह 'कर्ण कयावह' है—एक ऐसे वीर की कथा-स्मृति जिसने अपने कवच-कुण्डल तो दान किए ही, अंत में अपना जीवन भी मित्रता और वचन पर न्योछावर कर दिया।
कथा का आरंभ उस क्षण से होता है जब ऋषि दुर्वासा ने कुंती की सेवा से प्रसन्न होकर उसे एक ऐसा मंत्र दिया, जिसके उच्चारण मात्र से किसी भी देवता का आह्वान किया जा सकता था। कौतूहलवश, अविवाहित कुंती ने सूर्यदेव का आह्वान किया। आकाश मंडल दैदीप्यमान हो उठा और सूर्यदेव प्रकट हुए। उनके तेज से कुंती को तत्काल एक पुत्र की प्राप्ति हुई। वह बालक कोई साधारण शिशु नहीं था—उसके शरीर पर जन्मजात स्वर्ण कवच और कानों में मणियुक्त कुण्डल थे, जो उसकी दिव्यता का प्रमाण थे। किन्तु, लोक-लाज और समाज के भय ने एक माँ के हृदय को पत्थर बना दिया। कुंती ने उस नवजात सूर्यपुत्र को एक 'अश्वत्थ मंजूषा' (काठ की पेटी) में सुलाकर गंगा की लहरों को सौंप दिया।
भाग्य की विडंबना देखिये, वह पेटी बहते हुए चम्पानगरी के तट पर लगी। वहाँ सूत अधिरथ और उनकी पत्नी राधा ने उसे देखा। निःसंतान राधा के लिए वह बालक ईश्वर का उपहार था। उन्होंने उसे गोद में उठाया और उसका नाम 'राधेय' रखा। कवच-कुण्डल के कारण वह 'कर्ण' कहलाया। सूत के घर पलने के बावजूद, बालक के भीतर क्षत्रिय का तेज छिपा न रह सका। जैसे-जैसे वह बढ़ा, उसकी रुचि रथ हांकने में कम और धनुर्विद्या में अधिक होने लगी। यह वही समय था जब महाभारत (Mahabharata) के बीज बोए जा रहे थे।
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| यह चित्र कर्ण के जीवन के उस संघर्ष और पीड़ा को दर्शाता है, जो हिंदी के 'रश्मिरथी' में 'हुंकार' और मैथिली के 'कयावह' में 'करुणा' का रूप लेती है। |
अस्त्र-शस्त्र सीखने की ललक कर्ण को द्रोणाचार्य के पास ले गई, लेकिन वहां 'सूतपुत्र' कहकर उसे तिरस्कृत कर दिया गया। अपमान की आग में तपते हुए कर्ण ने भगवान परशुराम के पास जाने का निर्णय लिया। उन्होंने अपनी पहचान छिपाई और परशुराम से ब्रह्मास्त्र सहित समस्त दिव्य अस्त्रों का ज्ञान प्राप्त किया। शिक्षा पूर्ण होने को थी, कि एक दिन एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटी। गुरु परशुराम कर्ण की जांघ पर सिर रखकर सो रहे थे। तभी एक 'वज्रकीट' ने कर्ण की जांघ में काटना शुरू किया। असहनीय पीड़ा के बावजूद, कर्ण ने पैर नहीं हिलाया कि कहीं गुरु की नींद न टूट जाए। रक्त की गर्म धारा जब परशुराम के शरीर को छुई, तो वे जाग उठे। उन्होंने क्रोध और विस्मय के साथ कहा—"इतना धैर्य किसी ब्राह्मण में नहीं हो सकता। तूने छल से विद्या पाई है।" और वहीं कर्ण को वह भीषण शाप मिला, जिसका विस्तृत वर्णन आप रश्मिरथी सर्ग 2 (Rashmirathi Sarg 2) में पढ़ सकते हैं—कि जिस विद्या पर तुम्हें सबसे अधिक गर्व है, मृत्यु के समय तुम उसे भूल जाओगे।
शाप लेकर कर्ण हस्तिनापुर लौटा। वहाँ रंगभूमि में राजकुमार अपने कौशल का प्रदर्शन कर रहे थे। अर्जुन की श्रेष्ठता सिद्ध हो चुकी थी, तभी कर्ण ने प्रवेश किया और अर्जुन को द्वंद्वयुद्ध के लिए ललकारा। कृपाचार्य ने कुलाभिमान का प्रश्न उठाया—"अर्जुन राजकुमार है, वह केवल बराबरी वाले से लड़ेगा। तुम अपना कुल बताओ।" कर्ण का सिर झुक गया। उस भरी सभा में दुर्योधन उठ खड़ा हुआ और उसने कर्ण को अंग देश का राजा घोषित कर दिया। मित्रता की यह वह नींव थी जिस पर आगे चलकर महाविनाश लिखा जाना था। इस प्रसंग की ओजस्वी व्याख्या रश्मिरथी सर्ग 1 (Rashmirathi Sarg 1) में बहुत ही सुंदर ढंग से की गई है, जहाँ कर्ण जाति-पाति के बंधनों को तोड़ता है।
समय बीता, और युद्ध के बादल घिरने लगे। कर्ण की दानवीरता तीनों लोकों में प्रसिद्ध हो चुकी थी। वह प्रातःकाल सूर्य पूजा के बाद जो भी मांगता, उसे दे देते थे। इसी नियम का लाभ उठाकर देवराज इन्द्र ब्राह्मण भेष में आए और कर्ण से उसके कवच-कुण्डल मांग लिए। कर्ण जानता था कि यह छल है, यह उसके प्राण लेने की साजिश है, फिर भी वह पीछे नहीं हटा। उसने अपनी त्वचा को चीरकर, रक्त से सने कवच और कुण्डल इन्द्र को सौंप दिए। इस त्याग ने उसे देवताओं से भी ऊपर स्थान दिला दिया।
कुरुक्षेत्र का युद्ध निकट था। माता कुंती, जो जीवन भर मौन रही थीं, अब पुत्र मोह में कर्ण के पास आईं। उन्होंने रहस्य खोला कि कर्ण उनका ही जेष्ठ पुत्र है। कर्ण का हृदय विदीर्ण हो गया, किन्तु उसने माता को भी खाली हाथ नहीं जाने दिया। उसने वचन दिया कि वह अर्जुन को छोड़कर किसी भी पांडव का वध नहीं करेगा। "हे माता! तुम्हारे पाँच पुत्र जीवित रहेंगे। या तो मैं, या अर्जुन।" यह वही संकल्प था जिसे लेकर कर्ण युद्धभूमि में उतरा। उसके मन में केवल एक ही लक्ष्य था, जैसा कि आधुनिक गीतों में भी कहा गया है—मैं कुरुक्षेत्र में उतरा था बस अर्जुन से टकराने को।
युद्ध के सत्रहवें दिन, कर्ण और अर्जुन आमने-सामने थे। बाणों की वर्षा हो रही थी। कर्ण का पराक्रम देख कृष्ण भी चिंतित थे। तभी परशुराम का शाप और ब्राह्मण का श्राप एक साथ फलित हुआ। कर्ण के रथ का पहिया कीचड़ में धँस गया। वह उसे निकालने के लिए नीचे उतरा। उसने अर्जुन को युद्ध के नियमों की याद दिलाई, पर वासुदेव कृष्ण ने अर्जुन को स्मरण कराया कि अभिमन्यु वध के समय नियम कहाँ थे? विवश और निहत्थे कर्ण पर अर्जुन ने 'अंजलिक' बाण चलाया। सूर्य का तेज, सूर्यपुत्र के शरीर से विदा हो गया।
मैथिली लोकगाथा 'कर्ण कयावह' यहाँ समाप्त नहीं होती। लोक-विश्वास और मिथिला की किंवदंतियों (Folklore) के अनुसार, ऐसा माना जाता है कि मरणासन्न कर्ण की परीक्षा लेने भगवान पुनः भिक्षुक बनकर आए और दान माँगा। कर्ण के पास देने को कुछ न था, तो उसने पास पड़े पत्थर से अपना सोने का दाँत तोड़ा और वही रक्त-रंजित सोना दान कर दिया। यद्यपि यह प्रसंग मूल महाभारत में नहीं है, किन्तु लोक-आस्था ने इसे सत्य मानकर कर्ण को 'दानवीर' के सर्वोच्च पद पर आसीन किया है।
⭐ कर्ण कयावह — मैथिली कथा में दानवीर कर्णक जीवंत आख्यान
कहाइत अछि—
कुन्ती नामक जननीकेँ ऋषि दुर्वासाक कृपा सँ एकटा वरदान भेटल। जे कोनो देवता केँ ओहने बुला सकथि। बाल आयसन कौतूहल मेँ एक दिन अविवाहित कुन्ती सूर्यदेव केँ स्मरण कएलक। तेजक विस्फोट सँ सुवर्ण दीप्त पुत्र जन्मल — शरीर पर कवच, कान मेँ कुण्डल, मोन मेँ अनन्य तेज। मुदा समाजक भय सँ कुन्ती ओ नवजात केँ एकटा पेटी मेँ राखि नदीक गोद मेँ छोड़ि देलक।
भाग्यक धार ओकरा बहा क’ अधिरथ नामक सारथीक घरक बाहरे ल’ आयल। सारथी आ हुनकर पत्नी राधा निस्सन्तान छलथि। ई बालक ओहन भेटल जस्तै जेहेन भगवानक वरदान। ओ अपन अंकमेँ लेलनि, नाम धरल — वसुषेण, जे धीरे–धीरे सभक बीच ‘राधेय कर्ण’ बनल।
कर्ण रथ हांकय वाला बापक संग पलल, मुदा ओकरा भितर रथ केर लगाम नहि, धनुषक तंतु बजैत छल। ओकर आँखि में आकाश, हृदय में युद्धक स्फुरण। कहानी कहैत अछि — हरेक अहम् क्षण पर ओकर सामने एक दीवार उठल। गुरुकुल मे शिक्षा मांगल त द्रोणाचार्य कहि देलनि — “तूं सूतपुत्र छी, राजा–कुमारक विद्या तोंकेँ नहि।” समाजक भेद–रेखा ओकरे घेरि लेलक, मुदा कर्णक धैर्य टूटल नहि।
ओ छल–वेश धरि, भगवान परशुरामक चरणमेँ पहुँचि गेल। अथाह परिश्रम सँ धनुर्विद्या, दिव्यास्त्र, शस्त्रक रहस्य सभ सीखि लेलक। पर भाग्यक रेखा फेरि कांटा बनि उठल — एक दिन परशुराम कर्णक जंघा पर मुँह राखि निदामेँ पड़ि गेलाह। एक विषकीट ओकर जाघ केँ निर्घृण डँसैत रहल। पीड़ा असह्य, रक्तक धार बहैत — पर कर्ण एको बेर हिलल नहि, ज’ गुरु उठि नहि जाथ। परशुराम जगलाह त बुझलनि — “एहि पीड़ा के सहबाक सामर्थ्य साधारण ब्राह्मण में नहि। तूं हमरा छल देलऽ।” क्रोधक ज्वाला में ओ कहि देलनि — “मृत्यु समय में तोंक मुख्य विद्या तोरा काम नहि देत।” श्राप ओहि दिन कर्णक भाग्य में लिखल गेल।
फेर कर्ण हस्तिनापुर लौटल। रंगभूमि में कौरव–पाण्डव वीरता देखाए रहल छलाह। अर्जुनक प्रताप सभक आँखि में जल उठबैत छल। भीड़केँ चीरि क’ कर्ण आबि अर्जुन केँ चुनौती देल। लेकिन “सूतपुत्र” कहल गेल, कुल पूछल गेल, अपन अस्तित्व पर चोट भेटल। ओहि क्षण दुर्योधन आगे उठि कहलक — “एहि क्षण सँ कर्ण अंग देशक राजा छैक।” ई वचन केवल सिंहासन नहि, अपनत्वक वरदान छल। कर्ण एक वंचितक जीवन सँ स्वाभिमानक द्वार पर पहुँचल — और एहिपर ओ दुर्योधन सँ जीवनपर्यंत मित्रता निभाएल।
कहानी फेर मोड़ लेइछ। कर्णक दानवीरता देश–विदेश, देव–मानव सभ में प्रसिद्ध भेल। जकरा जे चाहि, ओ दैत — वचन, धन, सम्मान, वस्त्र, रथ, कीमती शस्त्र — सब देत। एतबे तक भेल जे देवराज इन्द्र, अर्जुनक रक्षा लेल, ब्राह्मण–वेश धरि कर्णक द्वारे पहुँचलाह। सूर्यदेव पहले चेतौनी देलथि — “ई द’ नहि।”
कर्ण हँसिक’ कहलक — “दान मांगल गेल अछि, त’ कबूल।”
ओ अपन शरीरक कवच आ कुण्डल काटि–छाटि द’ देलक। रक्त बहैत रहल, पर चेहरा शांत। देवता सेहो लज्जित भेलाह — ओहि दानक समकक्ष किछु द’ ओकरा विदा कएलनि, पर कर्णक रक्षा ओहि दिन सँ झरि गेल।
युद्धक बादल छा गेल। माता कुन्ती, लोकलाजक बोझ ज़िंदगीभर ढोइत, आँसू संग कर्णक सामने अपन पहचान खोललनि — “तूं हमर जेष्ठ पुत्र छी।” कर्ण स्तब्ध, ओहिकेँ सन अपन मोनक रहस्य उजागर भेल। पर कर्णक उत्तर ओतबे कठोर, ओतबे कोमल — “हे माता, अहाँक पाँच पुत्र जीवित रहत — चाहे मैं रहूँ या अर्जुन।” माता लेल ई वरदान छल, कर्ण लेल भाग्यक वज्र।
कुरुक्षेत्रक धरती लाल भेल। कर्ण–अर्जुन आमने–सामने — बाणक वर्षा, रथक टक्कर, आकाश, धूलि, शंखध्वनि… सब गूँजैत। कर्णक पराक्रम सबकेँ निरुत्तर केलक — कृष्णक नयन में चिंता छल।
फेर विधि–लेख फलित भेल। रथक पहिया कीचड़ में धँसि गेल। परशुरामक श्राप सच भेल — कर्ण अपन शस्त्रक मंत्र स्मरण नहि क’ पाबि रहल।
ओ रथ सँ उतरि पहिया निकालए लगल। अर्जुनक तीर चढ़ल। कर्ण पुकारल — “योद्धाक मर्यादा — निहत्था पर वार नहि।”
कृष्णक स्वर गूँजल — “मर्यादा के याद ओखन नहि छल, जखन द्रोपदीक चीरहरण भेल।”
अर्जुनक बाण छोड़ा गेल — सूर्यपुत्र कर्ण धरती पर ढहि पड़ल।
ई कथा एत’ खतम नहि होइछ। मिथिलाक लोक–विश्वास कहैत अछि —
भगवानक परीक्षा फेर आयल। भिखारीक रूप में मांगल — “दान।”
कर्णक पास किछु नहि — शस्त्र नहि, धन नहि, शक्ति नहि।
ओ पत्थर उठाउल — अपन सोने का दाँत तोड़ि द’ देलक, रक्त मेँ नहाएल ओ दान।
भिखारी मुस्कुराएल — “तूं दानक देवता छी।”
मिथिला कहैछ —
कर्ण युद्ध में हेरल, पर दिल में जीतल।
ओ लोकगाथा, लोकदेवता, दानक आदर्श बनि गेल।
‘कर्ण कयावह’ एहि लेल गाए जाएछ — किएक त’ एहि कथा में रक्तस्नात योद्धा नहि, त्यागस्नात मनुष्य जीवित अछि।
साहित्यिक विश्लेषण: मैथिली बनाम हिंदी साहित्य में कर्ण
अक्सर छात्र साहित्यशाला (Sahityashala) पर यह प्रश्न पूछते हैं कि मैथिली का कर्ण हिंदी के कर्ण से कैसे भिन्न है। यहाँ एक तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत है:
| विशेषता | रश्मिरथी (हिंदी - दिनकर) | कयावह (मैथिली लोक साहित्य) |
|---|---|---|
| मुख्य भाव (Rasa) | वीर रस (ओज और हुंकार) | करुण रस (वेदना और सहानुभूति) |
| चरित्र चित्रण | विद्रोही और समाज को ललकारने वाला | त्यागी, दानी और भाग्य का मारा हुआ |
| भाषा शैली | संस्कृतनिष्ठ खड़ी बोली | ठेठ मैथिली (लोकगीत शैली) |
जहाँ हिंदी कविता बादल को घिरते देखा है में प्रकृति का चित्रण है, वहीं कर्ण कयावह में मानवीय संवेदनाओं का सागर उमड़ता है। यह साहित्य हमें हमारी जड़ों, हमारी 'मिथिला' से जोड़ता है। आप मिथिला महिमा के अन्य गीतों में भी इस दर्द को महसूस कर सकते हैं।
निष्कर्ष
कर्ण का जीवन हमें सिखाता है—
"सूतपुत्र कहे, या कहे कोनो हीन।
कर्म प्रधान विश्व करि राखा, जा कर कर्म ओही कुलीन।।"
चाहे वह विद्यापति की पदावली हो या आधुनिक साहित्य, कर्ण जैसा त्रासदी नायक ढूँढना दुर्लभ है। 'कर्ण कयावह' केवल एक कहानी नहीं, बल्कि मैथिली संस्कृति की धरोहर है जिसे सहेजना हम सब का कर्तव्य है।
FAQ: मैथिली साहित्य में कर्ण (Frequently Asked Questions)
1. कर्ण कयावह (Karn Kayavah) क्या है?
कर्ण कयावह शब्द से हम मिथिला क्षेत्र में गाई जाने वाली उन लोक-गाथाओं और गीतों को समझते हैं, जिनमें महाभारत के योद्धा कर्ण के जीवन, संघर्ष और दान का मार्मिक वर्णन मिलता है।
2. मैथिली साहित्य में कर्ण को किस रूप में देखा जाता है?
मैथिली साहित्य और लोकगीतों में कर्ण को एक खलनायक या केवल कौरवों के मित्र के रूप में नहीं, बल्कि 'त्याग के देवता' और परम दानी के रूप में पूजा जाता है। यहाँ उनके प्रति सहानुभूति का भाव प्रधान है।
3. क्या विद्यापति ने कर्ण पर कुछ लिखा है?
विद्यापति के समय से ही मिथिला की मौखिक परंपरा में विविध पौराणिक प्रसंगों पर आधारित गाथाएँ विकसित हुईं। सम्भव है कि कर्ण पर केन्द्रित कुछ कथाएँ भी उसी दौर में या उसके बाद लोक-स्मृति में प्रचलित हुई हों।


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