कविक स्वप्न (Kavik Swapn)
वैद्यनाथ मिश्र "यात्री" (बाबा नागार्जुन) की कालजयी मैथिली कविता
परिचय: 'कविक स्वप्न' बाबा नागार्जुन (मैथिली में 'यात्री') की एक अत्यंत प्रभावशाली कविता है। यह कविता केवल कल्पना की उड़ान नहीं है, बल्कि यह कवि की अंतरात्मा का वह द्वंद्व है जहाँ वह अपनी 'रोमानियत' को छोड़कर 'यथार्थ' (Social Realism) की कठोर धरती पर उतरता है। जिस तरह हिंदी साहित्य में हम रश्मिरथी के पात्रों में संघर्ष देखते हैं, वैसी ही वैचारिक क्रांति यात्री जी की इस कविता में है।
जननि हे! सूतल छलहुँ हम रातिमे
नीन छल आयल कतेक प्रयाससँ।
स्वप्न देखल जे अहाँ उतरैत छी,
एकसरि नहुँ-नहुँ विमल आकाशसँ।
फेर देखल-जे कने चिन्तित जकाँ
कविक एहि कुटीरमे बैसलि रही।
वस्त्र छल तीतल, चभच्चामे मने
कमल तोड़ै लै अहाँ पैसलि रही।
श्वेत कमलक हरित कान्ति मृणालसँ
बान्हि देलहुँ हमर दूनू हाथकेँ।
हम संशकित आँखि धरि मुनने छलहुँ,
स्नेहसँ सूँघल अहाँ ता’ माथकेँ।
बाजि उठलहुँ अहाँ हे कल्याणमयि!
उठह कवि! हमही थिकहुँ ओ देवता।
राति-दिन जकरा तकैत रहैत छह
आँखि मुनि, लय कल्पनाक सहायता।
[कवि का आत्म-संघर्ष]
तोर तन दौड़ैत छहु कोठाक दिस,
पैघ पैघ धनीक दिस, दरबार दिस।
गरीबक दिस ककर जाइत छै नजरि,
के तकै अछि हमर नोरक धार दिस।
कय रहल छह अपन प्रतिभा खर्च तोँ
ताहि व्यक्तिक सुखद स्वागत गानमे।
जकर रैयति ठोहि पाड़ि कनैत छै
घर, आङन, खेत ओ खरिहान मे।
ओ पियासेँ मरि रहल अछि, ओकरे
अमृत पीबासँ जगत वंचित करय,
परम मेधावी कते बालक जतय
मूर्ख रहि, हा! गाय टा चरबैत छथि।
सफल होइत ई हमर स्वर-साधना
चिर-उपेक्षित जनक गौरव-गानमे।
नावपर चढ़ि वाग्मतीक प्रवाहमे
साँझखन झिझरी खेलाइ छलाह तोँ।
कल्पनामय प्रकृति तोहर देखिकेँ,
की करू हम ऐंचि कय रहि जाइ छी।
छह तोरा जकरा सङे एकात्मता,
सुनह कवि! हमही थिकहुँ ओ देवता।
कविता का विश्लेषण (Critical Analysis)
1. यथार्थवाद बनाम कल्पना (Realism vs Imagination)
इस कविता में 'स्वप्न' एक माध्यम है जिसके द्वारा कवि को जाग्रत किया जा रहा है। देवी (जननी) कवि को धिक्कारती है कि वह अमीरों (दरबारों) का गुणगान कर रहा है, जबकि उसके अपने लोग (मैथिली भाषी किसान और मजदूर) गरीबी में जी रहे हैं। यह भावना यात्री जी की अन्य कविताओं जैसे अंतिम प्रणाम और आन्हर जननी में भी प्रबल रूप से दिखाई देती है।
2. सामाजिक उपेक्षा और मानसिक वेदना
कवि लिखते हैं, "परम मेधावी कते बालक जतय / मूर्ख रहि, हा! गाय टा चरबैत छथि।" यह पंक्ति समाज की उस विडंबना को दर्शाती है जहाँ प्रतिभा गरीबी के कारण दम तोड़ देती है। यह स्थिति न केवल आर्थिक हानि है, बल्कि एक गहरे मानसिक अवसाद का कारण भी बनती है। आधुनिक संदर्भ में, इसे हम 'सिस्टम की विफलता' कहते हैं, जहाँ व्यक्ति को सहारे की जरूरत होती है (देखें: मानसिक स्वास्थ्य और सपोर्ट सिस्टम)।
3. कवि का धर्म
कविता का निष्कर्ष यह है कि कवि को "बोनिहार" (मजदूर) के पसीने और "सटल पाँजर" (चिपकी पसलियों) का संगीत बनाना होगा। नागार्जुन का यह रूप हमें भगवान राम के मानवीय संघर्ष की याद दिलाता है, जिन्होंने महलों का त्याग कर वनवासियों को गले लगाया था (राम: वो मेरे सम इंसान हुए)।
अन्य महत्वपूर्ण रचनाएँ पढ़ें:
- युवाओं के लिए आह्वान: नवतुरिया आबो आङा (Navturiye Aabo Aanga)
- क्रांतिकारी स्वर: छिप कर रहु (Chip Kar Rahu)
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