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ई सभक मैथिली - देवेन्द्र मिश्र | E Sabhak Maithili Poem with Meaning

ई सभक मैथिली - देवेन्द्र मिश्र | E Sabhak Maithili Poem with Meaning

ई सभक मैथिली: भाषा में एकता का उत्सव

E Sabhak Maithili by Devendra Mishra: मैथिली साहित्य की सबसे बड़ी शक्ति इसकी समावेशिता है। इसी भावना को अपनी लेखनी से साकार करते हैं कवि श्री देवेन्द्र मिश्र। उनकी कविता "ई सभक मैथिली" इस बात का उद्घोष है कि मैथिली किसी एक वर्ग, जाति या क्षेत्र की भाषा नहीं, बल्कि यह उन सभी की है जो इसे बोलते हैं, चाहे किसी भी रूप में।

ई सभक मैथिली - देवेन्द्र मिश्र | E Sabhak Maithili Poem with Meaning

यह कविता मनोरञ्जन झा की "मैथिलीकेँ नइँ बान्हियौ" की भावना को आगे बढ़ाती है। जहाँ वह कविता भाषा को बंधनों से मुक्त करने की अपील थी, वहीं यह कविता भाषा की विविधता में एकता का जश्न मनाती है।

ई सभक मैथिली – देवेन्द्र मिश्र

जे जहिना बाजए । सएह छियै मैथिली ।।

जे अहाँ बजैछी, सएह छियै मैथिली ।।

ई हमर मैथिली,ई अहाँक मैथिली ।।

एक्के जातिक छिए ने किनल,

दछिनाहा ने पूबारि छियै ई ।

नइ काेशिकन्हा,ने दडिभङ्गिया

पछिमाहा ने उतरबारि छियै ई ।।

काेइर,कमार,चमार,दुसाधाे,

मुसहर,तेली आ हलुवाइ ।

बाभन,कैथ आ यादव,धानुख,

राजपूत,बनियाँ,गनगाइ ।।

क्याैट आ कुर्मी, माली,हलखाेर

डाेम, वैश्य , कुज्जर,कलवार ।

सुँडी, थारु, बाँतर, खतबे,

राजधाेब आ भाउर,साेनार ।।

आओर विविध जाति आ वर्गक

बाेली अप्पन अलग-अलग ।

तीन काेसपर बाेली बदलै,

भाषा नइ अछि विलग-विलग ।।

ठेठी आ देहाती कहियाै

मैथिलीक बहु डारि छियै ई ।।

विविधताकेर स्वर्ग मैथिली

फूल नइ फुलवाडि छियै ई ।।

जे-जहिना बाजी सएह छियै मैथिली ।

ई हमर मैथिली । ई अहाँक मैथिली ।।

ई सभक मैथिली । ई सभक मैथिली ।।


कविता का भावार्थ और विश्लेषण (Meaning of the Poem)

देवेन्द्र मिश्र इस कविता में मैथिली की आत्मा को परिभाषित करते हैं। वह बताते हैं कि भाषा का कोई एक शुद्ध रूप नहीं होता, बल्कि उसका हर स्वरूप पवित्र है।

भाग 1: भाषा की परिभाषा कविता की शुरुआत ही एक क्रांतिकारी विचार से होती है - "जे जहिना बाजए । सएह छियै मैथिली ।।" (जो जैसे बोलता है, वही मैथिली है)। कवि क्षेत्रीय बोलियों जैसे दछिन्हा (दक्षिणी), पूबारि (पूर्वी), कोशिकन्हा (कोसी क्षेत्र की), दड़िभंगिया (दरभंगा की) को खारिज करते हुए कहते हैं कि मैथिली इन सीमाओं में बंधी नहीं है।

मातृभाषा दिवस (अमरनाथ झा) लगै सोहाउन रसनचौकी दूरहिं स’, ढोल आ ताशा स’भ तरफ सँ मिठगर लागै अपन अपन मायके भाषा ।  भने लिखा जाउ दोसरो भाषा होइछ कल्पना माइएक भाषा पढ़ि लेल जाय अनेक शास्त्र पर अर्थ बुझादै माइएक भाषा ।  अपन मातृभाषा के सदिखन बाँचल रहै आदर सम्मान गर्वोन्नत सिर रहतै सभदिन रखने  निज भाषाके मान ।  मायक भाषा,अप्पन भाषा हार रत्न सम गैंथिली बाहर हिंदी-अंगरेजी,वा जे घरमे बजियौ मैथिली ।  मातु मैथिली भाषा प्रचलन घर-बाहर मे हो व्यवहार अपन घ’र मे इज्जति पओती तखने इज्जति भरि संसार ।  आइ विश्वमातृभाषा-दिवस पर,सभकेँ अछि शुभकाम अपन-अपन मातृभाषाके मनमे रखने रही सदति सम्मान ।

भाग 2: सामाजिक समावेशिता का उद्घोष कविता का हृदय वह अंश है जहाँ कवि मिथिला की लगभग हर जाति का नाम लेते हैं - कोइर, कमार, चमार से लेकर बाभन (ब्राह्मण), कैथ (कायस्थ) और राजपूत तक। डोम, मुसहर, तेली, यादव, कुर्मी, बनिया, सोनार, सभी का उल्लेख करके वे यह स्थापित करते हैं कि मैथिली इन सभी समुदायों की सामूहिक धरोहर है। यह किसी एक जाति की खरीदी हुई संपत्ति नहीं है।

भाग 3: विविधता में एकता का संदेश कवि स्वीकार करते हैं कि "तीन कोस पर बोली बदलती है" और मैथिली में "ठेठी और देहाती" जैसे कई रूप हैं। लेकिन वह इन्हें अलग-अलग भाषा नहीं, बल्कि एक ही भाषा की डालियाँ मानते हैं।

कविता का अंत एक खूबसूरत रूपक के साथ होता है - "विविधताकेर स्वर्ग मैथिली, फूल नइ फुलवाडि छियै ई ।।" (मैथिली विविधता का स्वर्ग है, यह एक फूल नहीं, बल्कि पूरी फुलवारी है)। जैसे फुलवारी में हर तरह के फूल मिलकर उसकी सुंदरता बढ़ाते हैं, वैसे ही मैथिली की सभी बोलियाँ और उसे बोलने वाले सभी समुदाय मिलकर इसे समृद्ध बनाते हैं।

निष्कर्ष

"ई सभक मैथिली" सामाजिक एकता और भाषाई गौरव का एक शक्तिशाली गीत है। यह हमें सिखाती है कि भाषा जोड़ने का काम करती है, तोड़ने का नहीं। यह कविता हर मैथिली भाषी के लिए एक उत्सव है।


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