मिथिला की पावन भूमि और मैथिली भाषा के प्रति अगाध प्रेम को दर्शाती वैद्यनाथ मिश्रा 'यात्री' (जिन्हें हिंदी साहित्य में नागार्जुन के नाम से जाना जाता है) की यह रचना अत्यंत मर्मस्पर्शी है। "वंदना" केवल एक कविता नहीं, बल्कि मिथिला (Mithila) की सांस्कृतिक धरोहर, वहाँ की नदियों और विद्वानों का एक सजीव चित्रण है।
वंदना
वैद्यनाथ मिश्रा "यात्री" मैथिलि कविता
Nagaarjun "Yatri" Maithili Poems
हे तिरहुत, हे मिथिले, ललाम !
मम मातृभूमि, शत-शत प्रणाम !
तृण तरु शोभित धनधान्य भरित
अपरूप छटा, छवि स्निग्ध-हरित
शिर शोभित हिमगिरि निर्झरणा
गंडकि गाबथि दहिना जहिना
कौसिकि नाचथि वामा तहिना
धेमुड़ा त्रियुगा जीबछ करेह
कमला बागमतिसँ सिक्त देह
अनुपम अद्भुत तव स्वर्णांचल
की की न फुलाए फड़ए प्रतिपल
जय पतिव्रता सीता भगवति
जय कर्मयोगरत जनक नृपति
जय-जय गौतम, जय याज्ञवल्कय
जय-जय वात्स्यायन जय मंडन
जय-जय वाचस्पति जय उदयन
गंगेश पक्षधर सन महान
दार्शनिक छला’, छथि विद्यमान
जगभर विश्रुत अछि ज्ञानदान
जय-जय कविकोकिल विद्यापति
यश जनिक आइधरि सब गाबथि
दशदिश विख्यापित गुणगरिमा
जय-जय भारति जय जय लखिमा
जय लाख-लाख मिथिलाक पुत्र
अपनहि हाथे हम सोझराएब
अपनेक देशक शासनक सूत्र
बाभन छत्री औ’ भुमिहार
कायस्थ सूँड़ि औ’ रोनियार
कोइरी कुर्मी औ’ गोंढि-गोआर
धानुक अमात केओट मलाह
खतबे ततमा पासी चमार
बरही सोनार धोबि कमार
सैअद पठान मोमिन मीयाँ
जोलहा धुनियाँ कुजरा तुरुक
मुसहड़ दुसाध ओ डोम-नट्ट...
भले हो हिन्नू भले मुसलमान
मिथिलाक माटिपर बसनिहार
मिथिलाक अन्नसँ पुष्ट देह
सरिपहुँ सभ केओ मैथिले थीक
दुविधा कथीक संशय कथीक ?
ई देश-कोश ई बाध-बोन
ई चास-बास ई माटि पानि
सभटा हमरे लोकनिक थीक
दुविधा कथीक संशय कथीक ?
जय-जय हे मिथिला माता
सोनित बोकरए जँ जुअएल जोंक,
तँ सफल तोहर बर्छीक नोंक !
खएता न अयाची आब साग !
ककरो खसतैक किएक पाग ?
केओ आब कथी लै मूर्ख रहत ?
केओ आब कथी लै कष्ट सहत ?
केओ किअए हएत भूखैं तबाह ?
केओ केअए हएत फिकरें बताह ?
नहि पड़ल रहत, भेटतैक काज !
सभ करत मौज, सभ करत राज !
पढ़ता गुनता करता पास-
जूगल कामति, छीतन खवास
जे काजुल से भरि पेट खएत
ककरो नहि बड़का धोधि हएत
केवल कामेश्वरसिंह काल्हि
हमरालोकनि जे खाइत छी
खएताह ओहो से भात-दालि
अछि भेल कतेको युग पछाति
ई महादेश स्वाधीन आइ
दिल्ली पटना ओ दड़िभंगा
फहराइछ सभटा तिनरंगा
दुर्मद मानव म्रियमाण आइ
माटिक कण कण सप्राण आइ
नव तंत्र मंत्र चिंता धारा
नव सूर्य चंद्र नवग्रह तारा
हे हरित भरित हे ललित भेस
हे छोट छीन सन हमर देश
हे मातृभूमि, शत-शत प्रणाम!!
यात्री
मैथिलि कवितायेँ
"यात्री" मैथिलि कविता
उपर्युक्त पंक्तियों में 'यात्री' जी ने न केवल मिथिला के भूगोल का वर्णन किया है, बल्कि यहाँ के सामाजिक ताने-बाने को भी बड़ी खूबसूरती से पिरोया है। "वंदना" कविता हमें अपनी जड़ों से जुड़ने और अपनी मातृभूमि पर गर्व करने की प्रेरणा देती है। चाहे गोठ बिछनी जैसी लोक-संस्कृति हो या नवतुरिया का आह्वान, यात्री जी की कलम हमेशा समाज को जागृत करती रही है।
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अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न (FAQ)
वंदना कविता के रचयिता कौन हैं?
'वंदना' कविता के रचयिता प्रसिद्ध मैथिली कवि वैद्यनाथ मिश्रा 'यात्री' हैं, जिन्हें हिंदी साहित्य में 'नागार्जुन' के नाम से भी जाना जाता है। आप उनकी अन्य मैथिली कविताएं यहाँ पढ़ सकते हैं।
इस कविता का मुख्य भाव क्या है?
यह कविता मिथिला भूमि की वंदना है। इसमें कवि ने मिथिला की नदियों (गंगा, कोसी, गंडक), ऐतिहासिक पुरुषों और वहां की मिली-जुली संस्कृति का गौरवशाली वर्णन किया है।






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